क्या होता है नॉन परफॉर्मिंग एसेट? और कैसे यह देश की विकास रफ्तार पर लगाता है ब्रेक ?

जब कोई देनदार अपने बैंक को ईएमआई देने में नाकाम रहता है, तब उसका लोन अकाउंट नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) कहलाता है। नियमों के हिसाब से जब किसी लोन की ईएमआई, प्रिंसिपल या इंटरेस्ट ड्यू डेट के 90 दिन के भीतर नहीं आती है तो उसे एनपीए में डाल दिया जाता है। इसे ऐसे भी लिया जा सकता है कि जब किसी लोन से बैंक को रिटर्न मिलना बंद हो जाता है तब वह उसके लिए एनपीए या बैड लोन हो जाता है। एनपीए मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता हैं – स्टैंडर्ड, सब-स्टैंडर्ड, डाउटफुल और लॉस एसेट।लोन पर डिफॉल्ट के चलते बैंकों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़े, इसके लिए आरबीआई ने उसके लिए प्रोविजन करने का नियम बनाया है। बैंक को प्रोविजन के बराबर की रकम बिजनेस से अलग रखनी पड़ती है।

Example : मान लीजिए आपके पास कोई कंपनी है और आपने बैंक से 10 करोड़ रुपए का लोन लिया और बैंक वालों ने आपसे कहा कि आप इस राशि पर 10 फीसदी का ब्याज देते रहिए, हम आपसे वायदा करते हैं कि जबतक आपका बिजनेस बेहतर नहीं चलता है और आप ब्याज समय पर देते रहते हैं तबतक कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन बाद में अगर कंपनी के भीतर किसी भी तरह का विवाद हो जाता है, वह कंपनी अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं करती है और 90 दिनों तक ब्याज बैंक को नहीं दिया जाता है तो उस लोन राशि को बैंक एनपीए घोषित कर देता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि एनपीए कितने तरह का होता है और आखिर क्यों बैंक लोन देने से पहले कंपनी के बारे में सही से जानकारी हासिल नहीं करते हैं।

स्टैंडर्ड अकाउंट या लोन क्या होता है?
अगर देनदार समय पर लोन का रीपेमेंट करता रहता है, तो उसका लोन अकाउंट स्टैंडर्ड माना जाता है। बैंकों की वित्तीय सुरक्षा को देखते हुए बैंकिंग रेगुलेटर आरबीआई के बनाए नियमों के मुताबिक बैंकों को स्टैंडर्ड लोन के लिए भी प्रोविजन करना पड़ता है। स्टैंडर्ड लोन के लिए बैंकों को उसके 0.40 फीसदी के बराबर की रकम की प्रोविजनिंग करनी पड़ती है। कमर्शल रियल एस्टेट के मामले में यह 1 फीसदी जबकि छोटे उद्यमों के लिए 0.25 फीसदी है।

सब-स्टैंडर्ड एसेट क्या होता है?
जब कोई एसेट 12 महीने या कम समय तक एनपीए रहता है तो वह सब-स्टैंडर्ड एसेट कहलाता है। ऐसे लोन में देनदार का नेटवर्थ या चार्ज्ड सिक्यूरिटी की माकेर्ट वैल्यू इतनी नहीं होती है कि उससे समूचे बकाए की वसूली हो सके। सब-स्टैंडर्ड लोन के लिए बैंक को बकाया रकम के 15 फीसदी के बराबर की प्रोविजनिंग करनी पड़ती है। जिस लोन पर कोई सिक्यूरिटी नहीं होती है उसमें बैंकों को 10 फीसदी अतिरिक्त की प्रोविजिनिंग करनी पड़ती है।

डाउटफुल एसेट क्या होते हैं?
जब कोई एसेट 12 महीने तक सब-स्टैंडर्ड रहता है, तब वह डाउटफुल एसेट की कैटिगरी में आ जाता है। ऐसे लोन के समूचे बकाया रकम की वसूली की संभावना बहुत कम होती है। इसकी प्रोविजनिंग इस बात पर निर्भर करती है कि लोन कितने साल से डाउटफुल कैटिगरी में है। अगर कोई लोन एक साल तक डाउटफुल रहता है, तो उसकी 25 फीसदी प्रोविजनिंग होगी, तीन साल तक साल तक डाउटफुल रहने पर 40 फीसदी और तीन साल बाद 100 फीसदी प्रोविजनिंग करनी होगी।

लॉस एसेट क्या होता है?
बैंक जब यह मान लेता है कि उसके बुक पर बने किसी लोन अकाउंट की वैल्यू बहुत कम रह गई है या खत्म हो गई है तब उसे राइट ऑफ कर दिया जाता है। ऐसे में बैंक को बकाया रकम के 100 फीसदी के बराबर प्रोविजनिंग करनी पड़ती है। क्या कोई एनपीए वापस स्टैंडर्ड लोन हो सकता है? देनदार के बकाया इंटरेस्ट और प्रिंसिपल का भुगतान होने पर एनपीए स्टैंडर्ड लोन कैटिगरी में डाला जा सकता है। एनपीए को स्टैंडर्ड कैटिगरी में ट्रांसफर करने के लिए बैंक अक्सर देनदार को बकाया भुगतान के लिए ज्यादा वक्त देकर और इंटरेस्ट रेट घटाकर लोन को रीस्ट्रक्चर कर देते हैं।

भारत की स्थिति काफी खराब

ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर कैसे बैंकों से यह चूक होती है, जिसका भुगतान एनपीए के तौर पर उन्हें उठाना पड़ता है। ब्रिक्स देशों के समहूों में भारत सबसे फिसड्डी देश है, जहां 2016 में 10 फीसदी एनपीए था, जोकि कुल 7 लाख करोड़ रुपए था। लेकिन बांद में यह सामने आया कि यह एनपीए 10 फीसदी नहीं बल्कि 80 फीसदी है। दरअसल जब कोई कंपनी अपनी अपेक्षा के प्रतिकूल कंपनी का आंकलन करती और अपने बिजनसे को संभाल नहीं पाती है तो वह लोन वापस देने में विफल हो जाता है, दूसरी स्थिति में जब वैश्विक मंदी आती है तो कोई विशेष सेक्टर उसकी चपेट में आता है तो कंपनी लोन चुकाने में विफल रहती है और तीसरी स्थिति वह होती है जब कंपनी के अंदर किसी तरह का घोटाला हुआ और गलत तरीके से बैंक से लोन लिया गया।

Published by: Citizen Deb

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